भारतेंदु हरिश्चंद्र को आधुनिक हिंदी साहित्य का पितामह कहा जाता है। उन्होंने अपने केवल 35 वर्षों के अल्प जीवनकाल में लगभग एक दशक तक हिंदी साहित्य की सभी प्रमुख विधाओं—गद्य, पद्य, नाटक, निबंध, आलोचना, यात्रा-वृत्तांत और अनुवाद—में ऐसे उत्कृष्ट और कालजयी योगदान दिए कि उन्हें आधुनिक हिंदी साहित्य का प्रवर्तक माना गया। यही कारण है कि हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के पहले चरण को ‘भारतेंदु युग’ के नाम से जाना जाता है।
भारतेंदु हरिश्चंद्र का जन्म 9 सितंबर 1850 को काशी (वाराणसी) में हुआ था। उनके पिता श्री गोपालचंद्र ‘नगरधरदास’ एक प्रतिष्ठित कवि और विद्वान थे। भारतेंदु को साहित्यिक वातावरण विरासत में ही प्राप्त हुआ। दुर्भाग्यवश बचपन में ही उनकी माता (5 वर्ष की उम्र में) और पिता (10 वर्ष की उम्र में) का निधन हो गया। इस कठिन परिस्थिति के बावजूद, उन्होंने अपने आत्मबल से ज्ञान की साधना जारी रखी और एक विलक्षण प्रतिभा के रूप में उभरे।
भारतेंदु की प्रारंभिक शिक्षा बनारस के क्वीन्स कॉलेज में हुई, लेकिन पारिवारिक परिस्थितियों के चलते यह पूरी न हो सकी। इसके बावजूद उन्होंने स्वाध्याय के माध्यम से संस्कृत, बांग्ला, मराठी, गुजराती, पंजाबी, उर्दू और अंग्रेज़ी भाषाओं का गहन ज्ञान अर्जित किया। वे अनेक विद्वानों, लेखकों और विचारकों की संगति में आए, जिसने उनके दृष्टिकोण को और भी व्यापक बनाया।
भारतेंदु हरिश्चंद्र की रचनाओं में देशभक्ति, सामाजिक जागरूकता, मानवीय संवेदना और धार्मिक चेतना का स्पष्ट स्वर सुनाई देता है। उन्होंने ब्रिटिश शासन की आलोचना करते हुए भारत की दुर्दशा का चित्रण किया। उन्होंने लिखा—\"हा हा भारत दुर्दशा न देखी जाए!\" और \"अंग्रेज़ राज सुख साज सजे सब भाँती, पै धन विदेश चल जात यहै अविलम्ब!\"—जैसे मार्मिक पंक्तियों के माध्यम से जनभावनाओं को स्वर दिया।
कविता के क्षेत्र में उन्होंने प्रेम, भक्ति, श्रृंगार, राष्ट्रीय चेतना और सामाजिक सरोकारों को अभिव्यक्त किया। प्रेम माधुरी, भारत वीरत्व, वैसाख माहात्म्य, प्रेम फुलवारी, भक्ति सुधा जैसी रचनाएँ उनकी काव्यप्रतिभा की मिसाल हैं।
नाट्य साहित्य में भारतेंदु हरिश्चंद्र का योगदान ऐतिहासिक महत्व रखता है। उन्होंने नाटक को केवल मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि सामाजिक और राष्ट्रीय चेतना के प्रचार का माध्यम बनाया। उनके प्रसिद्ध नाटक ‘अंधेर नगरी’, ‘भारत दुर्दशा’, ‘सत्य हरिश्चंद्र’, ‘प्रेम जंगिनी’, ‘वैनिकी हिंसा’ आदि आज भी प्रासंगिक माने जाते हैं।